लोधी वंश के पतन के प्रमुख कारण क्या थे ?

लोधी वंश के पतन के कारण

लोधी साम्राज्य की स्थापना अफगानों की गजली जनजाति ने की थी। कहा जाता है कि बहलुल लोधी ने बुद्धिमानी से काम किया और उसने सैय्यदों की कमजोर स्थिति का लाभ उठाते हुए दिल्ली पहुंचने से पहले पंजाब पर कब्जा कर लिया था। उसने 19 अप्रैल 1451 को "बहलुल शाह गाजी" के खिताब के साथ दिल्ली के सिंहासन से भारत का नियंत्रण अपने हाथों में ले लिया. उसके गद्दी पर बैठने के बाद शर्की वंश का दमन हो गया।  

तथ्यों के अनुसार लोधी शासन के दौरान भारत में बड़े पैमाने पर अफगानों के आने की वजह से लोधी वंश ने अपनी खोई शक्तियां फिर से हासिल कर ली थी। बहलुल लोधी ने अपना साम्राज्य ग्वालियर, जौनपुर और उत्तरी उत्तर प्रदेश तक फैला लिया था और अपने सबसे बड़े बेटे बरबक शाह को जौनपुर का शासक नियुक्त कर दिया था। वह योग्य प्रशासक था, जिसने लगातार 26 वर्षों तक दिल्ली के आस– पास के प्रदेशों पर जीत हासिल की थी। 1488 ई. में जलाली में उसका निधन हो गया। दक्षिण दिल्ली के चिराग दिल्ली में आज भी उसकी कब्र मौजूद है।  

बहलुल लोधी के दूसरे बेटे सिकंदर लोधी का अपने बड़े भाई बरबक शाह के साथ सत्ता संघर्ष लगातार जारी था। सिकंदर लोधी 5 जुलाई 1489 को बहलुल लोधी का उत्तराधिकारी बन गया। सिकंदर लोधी को इतिहास में सच्चा कट्टरपंथी सुन्नी शासक कहा गया है जिसने मथुरा और नागा बंदरगाह पर भारतीय मंदिरों का विध्वंस करवाया था। उसने इस्लाम की सर्वोच्चता सिद्ध करने के लिए हिन्दुओं पर जजिया लगाया था। उसने 32 अंकों के गाज–ए– सिकंदरी की शुरुआत की जो किसानों को उनके द्वारा जोती गए जमीन को मापने में मदद करता था।

इतिहास में इसे निम्नलिखित कारणों की वजह से जाना जाता हैः 

1504 ई में आगरा शहर की स्थापना और खूबसूरत कब्रों एवं इमारतों के निर्माण।
उसने आयात और निर्यात को सुगम बनाने एवं अर्थव्यवस्था के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
किसानों को खाद्यान्न पर कर देने से छूट दी।
शिक्षा को बढ़ावा दिया।
सिकंदर एक कट्ट सुन्नी शासक था जिसमें धार्मिक सहिष्णुता का अभाव था।
सिकंदर लोधी ने ग्वालियर के किले पर फतह के लिए पांच बार कोशिश की लेकिन हर बार राजा मान सिंह से उसे मुंह की खानी पड़ी।  

1517 ई. में उसका निधन हो गया और उसके बाद उसका बेटा इब्राहिम खान लोधी, बड़े भाई जलाल–उद–दीन के साथ उत्तराधिकारी के लिए हुए युद्ध में जीत हासिल कर, दिल्ली के सिंहासन पर बैठा। दोनों भाइयों के बीच हमेशा युद्ध की स्थिति बनी रहती थी।  

लोधी वंश का पतन

इब्राहिम लोधी की ताजपोशी ने एक दशक के भीतर ही लोधी साम्राज्य को बहुत नीचे ला दिया था. इसके मुख्य कारण थेः

जलाल–उद– दीन का समर्थन करने वाले अफगानी रईसों के बीच असंतोष. अपने भाई के प्रति नफरत की वजह से इब्राहिम लोधी ने इन पर बहुत अत्याचर किए।  
प्रशासनिक प्रणालियों की विफलता और व्यापार मार्गों का अवरुद्ध होना जिसकी वजह से साम्राज्य की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से चरमारा गई थी।
लोधी सेना पर राजपूत राजाओं का खतरा और उनके द्वारा दी जाने वाली धमकियां।
बुरी आर्थिक स्थिति और उत्तराधिकार के लिए होने वाले लगातार युद्ध की वजह से राजकोष में तेजी से कमी. नतीजतन साम्राज्य कमजोर होता गया।
आंतरिक युद्ध जिसने साम्राज्य को कमजोर बना दिया और लोधी वंश जहीर उद दीन मोहम्मह बाबर के हाथों में चला गया जिसने 1526 में पानीपत की पहली लड़ाई में इब्राहीम लोधी को हराकर भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना की।
लोधी साम्राज्य बड़ा हो रहा था लेकिन उसमें संचार साधनों की कमी थी जिसकी वजह से समय और प्रयासों की बर्बादी होने लगी थी। राजा की योग्यता पर से लोगों का विश्वास खोता जा रहा था।
इस अवधि के दौरान गुलामों की संख्या बढ़ रही थी और इन गुलामों के रखरखाव में राजकोष पर बोझ बढ़ता जा रहा था।
उत्तराधिकार की लड़ाई में कोई निश्चित कानून नहीं बनाया गया था। कोई भी युद्ध शुरु कर सकता था और किसी भी साम्राज्य पर अपना अधिकार स्थापित कर सकता था। 
अभिजात वर्गों का लालच और अक्षमता ने सैन्य संगठनों को कमजोर और निष्प्रभावी बना दिया था।
इस प्रकार की सैन्य सरकार से लोगों के लगातार कम होते भरोसे ने भी वंश के पतन में योगदान दिया।  
तैमूर द्वारा किए जाने वाले नियमित आक्रमणों ने भी सैन्य क्षमताओं को कमजोर कर दिया था।
इब्राहिम लोधी के सख्त नियमों ने उसके कई गुप्त शत्रु पैदा कर दिए थे। उनमें से एक प्रमुख शत्रु उसका चाचा और लाहौर का शासक था जिसने इब्राहीम द्वारा किए गए अपमान का बदला लेने के लिए इब्राहीम को धोखा दिया और बाबर को लोधी साम्राज्य पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया। बाबर ने इब्राहीम को पानीपत की पहली लड़ाई में हरा दिया और इस तरह 1526 ई.  में लोधी वंश के 75 वर्षों के शासन का कड़वा अंत हो गया।

लोधी वंश– 1451-1526
बहलुल लोधी 1451 1489
सिकंदर लोधी 1489 1517
इब्राहिम लोधी 1517 1526

खिलजी वंश के तहत आर्थिक नीति और प्रशासन

खिलजी शासकों ने मध्य एशिया में अपने वंश की छाप छोड़ी थी और ये तुर्की मूल के थे। भारत में दिल्ली आने से पहले वे वर्तमान के अफगानिस्तान में लंबे समय तक रहे थे। खिलजी वंश के महत्वपूर्ण शासक थे:

जलाल उद दीन खिलजी: तुर्की, फारसी, अरबी जनसमूहों के एक मुस्लिम मुखियाओं के समूहों तथा विशिष्ट भारतीय-मुस्लिमों द्वारा जलाल-उद-दीन फ़िरोज़ खिलजी को सुल्तान के रूप में नियुक्त किया गया था।
अलाउद्दीन खिलजी: जूना खान, जिसे बाद में अलाउद्दीन खिलजी के रूप में जाना जाता था वह जलाल-उद-दीन का भतीजा और दामाद था। उसने हिंदू डेक्कन प्रायद्वीप, देवगिरी पर आक्रमण किया था जो महाराष्ट्र के हिंदुओं की राजधानी थी। 1296 में वह दिल्ली वापस लौटा और अपने चाचा और ससुर की हत्या कर सुल्तान के रूप में सत्ता प्राप्त की।
अंतिम खिलजी सुल्तान:
अलादीन खिलजी की मृत्यु दिसंबर 1315 में हो गयी थी। तत्पश्चात् मलिक काफूर सुल्तान के रूप में गद्दी पर आसीन हुआ था।
मलिक काफूर की मृत्यु के बाद मुस्लिम मुखियाओं द्वारा उमर शिहाब-उद-दीन को सुल्तान के रूप में प्रस्तुत किया गया और यदि वह किसी भी तरह वह मारा गया तो उसके बड़े भाई कुतुब-उद-दीन मुबारक शाह को उसके विकल्प के रूप में तैयार किया गया था।
मुबारक शाह ने 4 वर्षों तक शासन किया और खुसरो खान ने 1320 में उसकी हत्या कर दी।
दिल्ली में मुस्लिम मुखियाओं द्वारा खुसरो खान को सत्ताविहीन करने के लिए गाजी मलिक को आमंत्रित किया और खुसरो खान की हत्या कर वह गयासुद्दीन तुग़लक़ के रूप में वह तुगलक प्रशासन का पहला अग्रणी सुल्तान बना था।
आर्थिक नीति

खिलजी वंश के तहत आर्थिक नीति और प्रशासन में बहुत कठोर थे और यह सब राजा के हाथों में निहित थी। किसानों, व्यापारी और आम आदमी की स्थिति बहुत खराब थी और कभी-कभी पोषण करना भी मुश्किल हो जाता था। कुछ नीतियां इस प्रकार थी:

खिलजी शासकों विशेष रूप से अलाउद्दीन खिलजी ने सिर्फ अपने खजाने को बढ़ाने के लिए अपने खर्च करने के दृष्टिकोण को बदल दिया था और अपने दायित्वों का निर्वहन करने तथा युद्धों का विस्तार करने के लिए उसने खजाने को एकत्र किया।
उसने कृषि व्यवसाय करों को सीधे-सीधे 20% से 50% तक बढा दिया था जो अनाज और ग्रामीण उपज के रुप में या नकदी के साथ देय होता था और उसने किश्तों में भुगतान को समाप्त कर दिया था।
अलाउद्दीन खिलजी ने सल्तनत में गैर मुसलमानों पर चार प्रकार के कर लगा रखे थे जिनमें जजिया या सर्वेक्षण कर, खराज या भूमि कर, कारी या गृह कर और क्षेत्र कर के रूप में चारी शामिल था।
वह इसके अलावा उसने यह घोषणा की थी कि उसके दिल्ली स्थित अधिकारियों के साथ पड़ोसी मुस्लिम जागीरदार, खुत, मुक्कदीम, चौधरी और जमींदार सभी खड़ी उपज के उत्पादन का आधा हिस्सा लागत के रूप में जब्त कर सकते हैं।
मुस्लिम जागीरदारों के लिए मजदूरी निर्धारण को हटा दिया गया था और मजदूरी को केंद्रीय संगठन द्वारा एकत्रित किया जाता था।
राज्य में सभी कृषि व्यवसाय उपजों, जानवरों और गुलामों पर एक प्रकार का गुणवत्ता नियंत्रण था।
बाजारों को शहना-ए-मंडी कहा जाता था। मुस्लिम जहाज माल व्यापारियों को खरीदने तथा व्यापार के लिए इन मंडियों में विशेष लाइसेंस मिले हुए थे।
इन व्यापारियों के अलावा शहरी क्षेत्रों में अन्य कोई भी किसानों से खरीदने की पेशकश नहीं कर सकता था।
यहां जासूसों की विशाल व्यवस्था की गयी थी जो मंडी का निरीक्षण करते थे और उनके पास यह अधिकार था कि कोई भी जो प्रस्तावित सीमा से अधिक बेचता या खरीदता है तो वे उसे जब्त कर सकते थे।
जीविका के निजी एकत्रीकरण पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। वितरण प्रणाली अलाउद्दीन द्वारा शुरू की गयी थी और यहां गुणवत्ता नियंत्रण की एक प्रणाली विद्यमान थी।
ये खर्चों पर नियंत्रण के अलावा उन लोगों को मजदूरी के बारे में अवगत कराते थे जिन्हें इसका लाभ नहीं नहीं मिलता था।
अलाउद्दीन खिलजी की मौत के बाद गुणवत्ता नियंत्रण की विधि ज्यादा कारगर साबित नहीं हो सकी थी। 

दिल्ली सल्तनत के दौरान आर्थिक स्थितियां

एक यात्री इब्न बतूता जो चौदहवीं शताब्दी के दौरान उत्तरी अफ्रीका से भारत आया था, के अनुसार राज्य में कृषि की स्थिति अत्यंत संपन्न थी। मिट्टी काफी उपजाऊ थी जिस पर प्रति वर्ष दो फसलों का उत्पादन किया जाता था। चावल साल में तीन बार बोया जाता था। इस अवधि के दौरान कई खूबसूरत मस्जिदों, महलों, किलों और स्मारकों का निर्माण किया गया था जिससे इस अवधि की भव्यता के बारे में पता चलता है। इस अवधि के दौरान, सुल्तानों, स्वतंत्र प्रांतीय राज्यों के शासकों और रईसों के पास अकूत धन संपदा थी जिससे वे राजशी और खुशी का जीवन व्यतीत करते थे।

कृषि

कृषि, व्यवसाय का एक प्रमुख स्रोत था।
भूमि, उत्पादन का स्रोत होती थी। उपज आम तौर पर पर्याप्त होती थी।
पुरूष, फसलों की देखभाल और कटाई करते थे;
महिलाएं जानवरों की देखभाल करती थी।
 कृषि समाज के अन्य भाग थे:

बढ़ई, जो औजार बनाते थे 
लोहार, लौह उपकरणों की आपूर्ति करता था।
कुम्हार, घर के बर्तन बनाता था।
मोची, जूते सीने का काम करता था।
पुजारी, शादी और अन्य समारोहों को संपन्न कराता था।
यहां कुछ सहायक कार्य भी होते थे जिनमें साहूकार, धोबी, सफाई कर्मचारी, चरवाहे और नाई शामिल थे।
खेती पूरे गांव के जीवन की धुरी थी।
प्रमुख फसलों में दलहन, गेहूं, चावल, गन्ना, जूट और कपास शामिल थे।
औषधीय जड़ी बूटियों और  मसालों का भी निर्यात किया जाता था।
उत्पादन स्थानीय खपत के लिए किया जाता था।
कस्बे, कृषि उत्पादों और औद्योगिक वस्तुओं के वितरण के केंद्र के रूप में कार्य करते थे।
राज्य वस्तु के रूप में उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा रख लेता था।
उद्योग

यहां पर ग्रामीण और कुटीर उद्योग थे।
यहां पर कार्यरत श्रमिक परिवार के सदस्य होते थे।
रूढ़िवादी तकनीक का इस्तेमाल किया जाता था।
इस अवधि के दौरान बुनाई और कपास की कताई जैसे कुटीर उद्योग होते थे।
सुल्तान जिन बडें उद्यमों का निर्माण कार्य अपने हाथों में लेते थे उन्हें "कारखानो" के रूप में जाना जाता था।
शिल्पकार सीधे तौर पर अधिकारियों की निगरानी में कार्यरत होते थे।
वस्त्र उद्योग इस समय के सबसे बड़े उद्योगों में से एक था।
व्यापार एवं वाणिज्य

सुल्तानों के शासनकाल के दौरान अंतर्देशीय और विदेशी व्यापार में काफी समृद्धि हुयी थी।
आंतरिक व्यापार के लिए व्यापारियों और दुकानदारों के विभिन्न वर्ग होते थे।
प्रमुख रुप से उत्तर के गुजराती,  दक्षिण के छेती,  राजपूताना के बंजारे मुख्य व्यापारी होते थे।
वस्तुओं के बड़े सौदों 'मंडियों'  में किये जाते थे।
मूल बैंकरों या बैंको का उपयोग ऋण देने के लिए और जमा प्राप्त करने के लिए किया जाता था।
आयात की मुख्य वस्तुए रेशम, मखमल, कशीदाकारी सामान, घोड़े, बंदूकें, बारूद, और कुछ कीमती धातुएं होती थी।
निर्यात की मुख्य वस्तुएं अनाज, कपास, कीमती पत्थर, इंडिगो, खाल, अफीम, मसाले और चीनी होते थे।
वाणिज्य में भारत से प्रभावित देशों में इराक, फारस, मिस्र, पूर्वी अफ्रीका, मलाया, जावा, सुमात्रा, चीन, मध्य एशिया और अफगानिस्तान शामिल थे।
जलमार्ग पर नावीय परिवहन और समुंद्री व्यापार वर्तमान की तुलना में अत्यधिक विकसित था।
बंगाल, चीनी और चावल के साथ नाजुक मलमल और रेशम का निर्यात करता था।
कोरोमंडल का तट कपड़े का एक केंद्र बन गया था।
गुजरात अब विदेशी माल का प्रवेश बिंदु हो गया था।
यूरोपीय व्यापार

16 वीं सदी के मध्य और 18 वीं सदी के मध्य के बीच भारत के विदेशी व्यापार में तेजी वृद्धि हुयी थी।
इसका मुख्य कारण विभिन्न यूरोपीय कंपनियों की व्यापारिक गतिविधियां थी जो इस अवधि के दौरान भारत आई थीं।
लेकिन 7वीं शताब्दी ईस्वी से उनका समुद्री व्यापार अरबों के हाथों में चला गया जिनका हिंद महासागर और लाल सागर में बोलबाला था।
अरबों, और वेनेटियनों द्वारा भारतीय व्यापार के इस एकाधिकार को पुर्तगालियों द्वारा भारत के साथ प्रत्यक्ष व्यापार की मांग से तोड़ा जा सका था।
भारत में पुर्तगालियों का आगमन अन्य यूरोपीय समुदाय के आगमन के बाद हुआ था और जल्द ही भारत के तटीय और समुद्री व्यापार पर गोरों ने एकाधिकार स्थापित कर लिया था।
कर प्रणाली:

दिल्ली सल्तनत के सुल्तान द्वारा पांच श्रेणियों में कर एकत्र किया जाता था जिससे साम्राज्य की आर्थिक प्रणाली में गिरावट आयी थी।

ये कर थे:

उशर,
खराज,
खम्स,
जजिया और
जकात।
व्यय की मुख्य वस्तुएं सेना के रखरखाव, नागरिक अधिकारियों के वेतन और सुल्तान के निजी व्यय पर खर्च किये जाते थे।
परिवहन और संचार:

 

परिवहन के सस्ते और पर्याप्त साधन थे।
सड़कों पर सुरक्षा संतोषजनक थी और बीमा द्वारा कवर किया जा सकता था।
इस समय में मुख्य राजमार्गों के 5 कोस पर सरायों के साथ यात्रा करना यूरोप की तुलना में अच्छा था। इस कारण लोगों में सुरक्षा की भावना होती थी।
मुगलों ने सड़कों और सरायों की गुणवत्ता पर विशेष ध्यान दिया था जिससे संचार आसान हो गया था।
सम्राज्य में प्रवेश के समय माल पर वस्तु कर लगाया जाता था।
सड़क मामलों या राहदरी को अवैध घोषित किया गया था, हालांकि कुछ स्थानीय राजाओं के कुछ लोगों द्वारा इसे एकत्र करना जारी रखा गया था जिसका प्रयोग अच्छी सड़कों को बनाए रखने के लिए किया जाता था।
सल्तनत काल उस अवधि के दौरान सबसे स्वर्णिम दौर था जिसका फायदा भारतीय दोनों ने उठाया था। 

महमूद गजनवी (971 ईश्वी से 1030 ईश्वी)

महमूद गजनवी, गजनी का शासक था जिसने 971 से 1030 AD तक शासन किया | वह सुबक्त्गीन का पुत्र था | भारत की  धन-संपत्ति से आकर्षित होकर, गजनवी ने भारत पर कई बार आक्रमण किए | वास्तव में गजनवी ने भारत पर 17 बार आक्रमण किया | उसके आक्रमण का मुख्य मकसद भारत की संपत्ति को लूटना था |

1000 AD  में महमूद गजनी के आक्रमण : महमूद गजनी  ने पहली बार 1000 AD में आधुनिक अफ़्गानिस्तान और पाकिस्तान पर हमला किया था | इसने हिन्दू शासक जय पाल को पराजित किया जिसने बाद में आत्महत्या कर ली और उसका पुत्र आनंदपाल उसका उत्तराधिकारी बना |

गजनी ने भाटिया पर 1005 AD में आक्रमण किया |
गजनी ने मुल्तान पर 1006 AD में हमला किया | इसी दौरान आनंदपाल ने उस पर हमला किया |
गजनी के महमूद ने भटिंडा के शासक सुखपाल पर 1007 AD  में हमला किया और उसे  कुचल दिया |
गजनी ने पंजाब के पहाड़ियों में नगरकोट पर 1011 AD में हमला किया |
महमूद ने, आनंदपाल के शाही राज्य पर आक्रमण किया और उसे वैहिंद के युद्ध में, पेशावर के निकट हिन्द शाही  राजधानी में 1013 AD में हरा दिया |
गजनी  के महमूद ने  1014 AD में थानेसर पर कब्जा कर लिया |
गजनी के महमूद ने 1015 AD में कश्मीर पर आक्रमण किया |
इसने 1018 AD  में मथुरा पर आक्रमण किया और शासकों के गठबंधन  को हरा दिया, जिसमे चन्द्र पाल नाम का शासक भी था |
महमूद ने 1021 AD में कनौज के राजा चन्देल्ला गौड़ को हराकर, कनौज को जीत लिया |
महमूद  गजनी के द्वारा ग्वालियर पर 1023 AD में हमला हुआ और उस पर कब्जा कर लिया  |
महमूद गजनी ने 1025 AD में सोमनाथ मंदिर पर हमला किया ताकि मंदिर के अंदर की धन संपत्ति को लूट कर एकत्रित कर सके |
अपने आखिरी आक्रमण के दौरान मलेरिया के कारण महमूद गजनवी की 1030 AD में मृत्यु हो गई |
महमूद गजनवी ने क्यूँ भारत पर हमले किए ?        

वह भारत की अधिक धन संपत्ति से आकर्षित था | इसी कारण उसने भारत पर एक के बाद एक हमले किए | इसने भारत पर आक्रमण के दौरान धार्मिक आयाम को भी जोड़ा | गजनी ने सोमनाथ, कांगड़ा, मथुरा और ज्वालामुखी के मंदिरों को नष्ट कर के “मूर्ति तोड़” के रूप में नाम कमाना चाहा |

भारत पर गजनवी के हमलों का असर

यद्यपि भारत पर गजनवी के आक्रमणों का कोई गहरा राजनीतिक असर नहीं है | इन आक्रमणों ने राजपूत राजाओं की युद्ध रणनितियों की कमियों के बारे में खुलासा कर दिया | इससे एक खुलासा और हुआ कि भारत में राजनीतिक एकरूपता नहीं थी और इस बात ने भविष्य में ज्यादा हमलों को बुलावा दिया |

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